सामाजिक विमर्श >> भारत के मध्य भाग की अजीब दस्तान भारत के मध्य भाग की अजीब दस्तानपवन कुमार वर्मा
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भारत के मध्य वर्ग की अजीब दास्ताँ में पवन कुमार वर्मा ने इसी प्रस्थान बिंदु से बीसवीं शताब्दी में मध्य वर्ग के उदभव और विकास की विस्तृत जांच-पड़ताल की है।
भारत 1991 में जैसे ही आर्थिक सुधारों और भुमंलिकरण की डगर पर चला, वैसे ही इस देश के मध्य वर्ग को एक नया महत्त प्राप्त हो गया। नई अर्थनीति के नियोजकों ने मध्य वर्ग को 'शहरी भारत' के रूप में देखा जो उनके लिए विश्व के सबसे बड़े बाजारों में से एक था। एक सर्वेक्षण ने घोषित कर दिया कि यह 'शहरी भारत अपने आप में दुनिया के तीसरे सबसे बड़े देश के बराबर है।' लेकिन, भारतीय मध्य वर्ग कोई रातोंरात बन जानेवाली सामाजिक संरचना नहीं थी। उपभोक्तावादी परभक्षी के रूप में इसकी खोज किए जाने से कहीं पहले इस वर्ग का एक अतीत और एक इतिहास भी था। भारत के मध्य वर्ग की अजीब दास्ताँ में पवन कुमार वर्मा ने इसी प्रस्थान बिंदु से बीसवीं शताब्दी में मध्य वर्ग के उदभव और विकास की विस्तृत जांच-पड़ताल की है। उन्होंने आजादी के बाद के पचास वर्षो को खास तौर से अपनी विवेचना का केंद्र बनाया है। वे आर्थिक उदारीकरण से उपजे समृद्धि के आशावाद को इस वर्ग की मानसिकता और प्रवृतियों की रोशनी में देखते हैं। उन्होंने रातोंरात अमीर बन जाने की मध्यवर्गीय स्वैर कल्पना को नितांत गरीबी में जीवन-यापन कर रहे असंख्य भारतवासियों के निर्मम यथार्थ की कसौटी पर भी कसा है। मध्य वर्ग की यह अजीब दास्ताँ आजादी के बाद हुए घटनाक्रम का गहराई से जायजा लेती है। भारत-चीन युद्ध और नेहरु की मृत्यु से लेकर आपातकाल व् मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा तक इस दास्ताँ में मध्य वर्ग एक ऐसे खुदगर्ज तबके के रूप में उभरता है जिसने बार-बार न्यायपूर्ण समाज बनने के अपने ही घोषित लक्ष्यों के साथ गद्दारी की है। लोकतंत्र और चुनाव-प्रक्रिया के प्रति मध्य वर्ग की प्रतिबद्धता दिनोंदिन कमजोर होती जा रही है। मध्य वर्ग ऐसी किसी गति-विधि या सच्चाई से कोई वास्ता नहीं रखना चाहता जिसका उसकी आर्थिक खुशहाली से सीधा वास्ता न हो। आर्थिक उदारीकरण ने उसके इस रवैये को और भी बढ़ावा दिया है। पुस्तक के आखिरी अध्याय में पवन कुमार वर्मा ने बड़ी शिद्दत के साथ दलील डी है कि कामयाब लोगों द्वारा समाज से अपने-आपको काट लेने की यह परियोजना भारत जैसे देश के लिए खतरनाक ही नहीं बल्कि यथार्थ से परे भी है। अगर भारत के मध्य वर्ग ने दरिद्र भारत की जरूरतों के प्रति अपनी संवेदनहीनता जरी रखी तो इससे वह भरी राजनितिक उथल-पुथल की आफत को ही आमंत्रित करेगा। किसी भी राजनितिक अस्थिरता का सीधा नुकसान मध्य वर्ग द्वारा पाली गई समृद्धि की महत्त्वाकांक्षाओं को ही झेलना होगा।
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